Monthly Archives: अक्टूबर 2012

तमाम रंग …

सामान्य

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रामनगर की रामलीला में 
हर शाम रंगें जा रहें है 
राम के चेहरे 
मुल्तानी मिट्टी के 
लेप से 

जरा लीपी पुती जिंदगी 
भी है इन दिनों 

चिरई गांव का बंसी 

अपनी सब्जी का ठेला 
ढांप के धर दिया है 
अब एक महीने राम बनना है 

मंडली वाले सारा दिन करवाते हैं 
कुछ ना कुछ काम 

पर ..सियाबर रामचंद्र की जय 
सुनते ही बंसी भूल जाता है 
अपनी जिंदगी की सारी उलझने

अपने कंधे पर धनुष रखते 
फडकने लगती है उसकी भुजाएं 
वो चलाना चाहता है एक जादुई तीर 
जिससे बदल जाये देश दुनिया 
दुःख तकलीफें ..

राम राज खाली किताब में है 
कभी किसी ने नही देखी
अब तो देखना भी ना चाहें ऐसा राज 

जीतनी ईमानदारीसे बने हम राम 
उतनी ईमानदारी से प्रभू बंसी बन के देखो 

सब्जी के ठेले को दिन दुपहरिया 
गली गली ठेलते गुहार लगाते
सूख जाता है कंठ.. सूख जाती हैं 
हरी सब्जियां 

मुरझाया मुहँ लिए लौटते है घर 
साथ लाए चंद सिक्कों से बची 
रहती हैं सांसें 

जाने दो तुम नही समझोगे ….

आज रात बनवास के बाद दशरथ 
की रुदन वाली लीला है 

सभी कलाकार अभ्यस्त है 
ऐसी लीला के …….अभ्यास की 
कौनो जरुरत नही …

 
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सपनें तराशती रही 

अब हों गए ये नाख़ून से 

नुकीले 

नींद जख्मी है 

बिस्तर की बेचैन 

सलवटों पर 

रातें जागती हैं 

खारी नदी में

डूब गई आँखें 

बित गई रात …….

 
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समय था की मैं 
तुम्हारी जरुरत बन गई 

अब यू की 

अपनी जरुरत भर 
पहचानते हों तुम ……

 
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मीठी हँसी है तेरी 

जैसे पहली बार सुनो 
तो स्मृतियों में समाई 
सारी मुस्कराहटें 
जल भून जाये 

हलकी बयार सी छू जाती 
है तेरी हंसी 
और जब हंसती है 

तो तेरी आँखों में 
दिखता है तेरा मन 

तू हंसती रह …की जीता रहूँ मैं …….

 
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हथेलियों में पसीजता समय 
साथ के खत्म होने की बेचैनी 

फिर मिले ना मिले 
आँखों से छलकते सवाल 

जबाब में बस कोरी मुस्कराहट 
और स्पर्श की नरमी 

तुम दे जाते हों मुझे हर बार 

अगली बार मिलने का एक बहाना 

और उस बहाने को अपने सिने से लगा 
मैं करती हूं एक और बार 
तुमसे मिलने का खूबसूरत इंतजार ……..

 
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कई बार बुझ जाती है 
वो आग जिसपर 
सेंकती हूं 
मैं दिन की रोटी
आंसुओ से खारी 
पड़ती है रोटी 
और आग नही जलती 
उतनी देर जितनी 
उसे जलनी चाहिए

और इस तरह 
आटे पानी आंसू 
और आग के खेल 
में ..मैं जलती भी हू 
सिकती भी हूं 

पर नही बुझने देती 
भूख 

यही तो है 
जो बनाती है 
हमे जीवन को लेकर 
कुछ और जिम्मेवार ….

 
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मैंने जब भी तुम्हें जैसा 
कहा तुम वैसी हों गई 

जब मैंने बादल कहा तुम छा गई 
मेरे तनमन पर 

जब कहा कविता हों तुम 
तुम वो मिसरी सी मिठास 
रख जाती होठों पे 

जब कहा बयार हों 
सरसराती सी मुझे सहला जाती 

कितने रंग थे तुम्हारे प्यार में 

एक दिन मैंने तुम्हें औरत कहा 
तुम घर की सारी जिम्मेवारियां 
अपने कमर में खोंस 
खो गई ..और तमाम 
लोगों की भीड़ का 
हिस्सा हों गई ………

 
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पुरानी छत पर 
बैठ कर 
नए जोड़ों ने 

पुराने चाँद को देख 
कुछ पुँराने वादे 
दुहराए 

नई तारीख में 
लिखी गई 

एक और प्रेम कहानी 

एक था राजा एक थी रानी …….

 
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कागज़ का भयानक रावण
जल रहा धू धू कर 

अट्टालिकाओं में बैठा 
सुदर्शन रावण करता रहेगा 
अट्टहास 

हर साल होती है रामलीला 
महीने भर तक 

सालों साल मुस्कराता है 
अपनी लंका में दशानन 

उसके कारिंदे बचाए रखते है 
उसका राज पाठ 

रामलीला मैदान के मेले में 
माइक पर आवाजे कांपती हुई सी 
आ रही हैं 

असत्य पर सत्य की विजय 

हमारे कानों में भी पड़ती है ये आवाज 

आज के दिन के लिए…. कहते हैं 

यही है वो आखिरी भाषाई तीर 
जो कभी नही लगता निशाने पर 

आधे में बुझ गए रावण को बच्चे 
फिर से जला रहे हैं 

चंदे में मिले पैसों से राम लखन सीता 
अपना घर चला रहे हैं ……

 
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जिंदगी की इस अकेली डाल पर बैठे हुए हैं 
क्या करें क्या न करें की सोच लेकर 

शाम बैठी थी हमारे साथ 
कल कुछ देर को 

चाँद भी पत्तों में छिपकर 
पास सा था 

बह रही नदियों की ठहरी धार 

आँखों में थमीं थी 

याद की पुरवाइयों ने छू लिया था 

दूर जल कर खाक सा सब हो गया था 

सब दिशाएं भोज में आई थी उस दिन 

तुम नही थी …………..

 
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मेरे संग धूप जगती है 
मेरे साये 
मेरी करवट में मेरे साथ 
सोते हैं 

उचक कर मैं हवा में 
बह रही यादें 
पकडती हूँ 

झटक कर टांग आती हूँ 

उदासी में सने कपडे 

हथेली में तुम्हारे नाम को 
इतरा के लिखती हूँ 

किसी को हक़ नही की छीन ने 
मुझसे मेरे सपनें 

समय को साथ रखती हूँ 
सभी रंगों में अपने ख्वाब के 
मैं रंग मिलाती हूँ 

मैं अपनी रात को अपनी ही 
शर्तों पर जगाती हूँ 

पर आँखों में भरे बादल पे 
मेरा वश नही चलता 

मेरी खुशियों की चुगली में 
बिना मौसम बरसते हैं ….

 
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तुम यहाँ रुको 
मैं रुक गई 

जल्दी चलो 
मैं दौड़ पड़ी 

किसी से कुछ मत कहना 
चुप रही 

अब रोने मत लगना 

मैंने आंसू पि लिए 

देर से आऊंगा 
मैंने दरवाजे पर रात काट दी 

खाने में क्या ?
मैंने सारे स्वाद परोस दिए 

तुम्हारे झल्लाने से सहम 
जाते हैं मेरे बच्चे 

मैं तुम्हें नाराज होने का 
कोई मौका नही देती 

और तुम मुझे जीने का ……..

 
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घाट की सीढियाँ काँप रही हैं 
शून्य में डूबे पिता 
नही पहुँच पा रहे 
गंगा के निकट 
आज करनी है 
अम्मा की आखिरी विदाई 

बरसी …..

ऐसे कैसे विदा कर दें तुम्हें 

मन की कितनीं ही 
कोठरियों में 
लगी हैं तुम्हारे हाथ की बनी 
वो मजबूत सांकल 
जहाँ तुम डटी रहीं 
सुख दुःख को आने जाने का 
रास्ता दिखाती 

अम्मा ……आज हवा बड़ी तेज है 
जैसे उड़ा ले जाएगी सब जो संजोया है अब तक 
बचाने के उपक्रम में हम 
बिखर रहें हैं 

पंडितों के मंत्रोच्चार से 
नतमस्तक है बनारस 
हज़ार हज़ार दिया टिमटिमा रहा है 
सबमें मुस्करा रही हो तुम 

पिताजी ने पहनी है 
सफ़ेद धोती 

और हम सबने …सफ़ेद उदासी ……..

 
   12
 
रेत की चादर 
सुखाने डाल देता है 

भेज देता है 
लहर से शोख बच्चों को 

चादरे बेहाल 
किनारों पे पड़ी हैं ……

एसाइड

       1

 

अम्मा तारा बन गई 
अब आसमां का साथ 
निभाएंगी 

पिताजी खोजते रहे थे 
अलमारी की चाभी 
नही मिली 

गरम कपडे 
कहाँ रखीं हैं ?

बता जाना था ना …

भाभी ने खूब अच्छे से 
साफ़ किया पूजा घर 
वही दरवाजे पर ठिठकी रहीं देर तक 
पर नही लगाई आपने आवाज 
की भगवान का बर्तन बाहर रख दो 
हम साफ़ कर लेंगें 

भाभी को और भी काम है 
कुछ बोलिए ना जल्दी से …..

और पता है खूब गिरे हरसिंगार 
वो ऊपर वाली डाली के फूल भी 
जिन्हें अपनी छड़ी से तोड़ लाती थी आप 
उठा लो अम्मा ..सब मसले जायेंगे नही तो ..

बड़े लोग आये हैं घर में 
नही मिल रही है दरी चादरें 
औए वो बड़ा भगोना कड़ाही भी 
सब एक दूसरे का मुहँ ताक रहे हैं 

शाम कोअपने नियत समय पर 
आ रही है वो सारी गौरय्या
हमारे डाले दानों को देखती है अपने पंख 
फडफडा गुस्सा दिखाती है 
और उड़ जाती है भूखी ही 
भाई ने लुढ़का दिया है चावल का डिब्बा 
लो पकड़ो संभालो अपने परिंदों का 
ये संसार 

और कैसे छीन सकती हैं आप 
अपनी बेटियों से उनका मायका ??
नही रख पाएंगे आपके मखमली 
गोद मे अपना सर की आप 
सहलती हुई हमे सोख लेती हमारे 
सारे दुःख दर्द उदासी 

नही मानना हमे की नही हैं आप 
फोन लिए कर रहे हैं इंतजार 
नही पता हमे कुछ ….

बात करिये ना अम्मा 

बड़े दिनों से किसी ने 
बाबु…भईया….नही पुकारा हमें ……..

 
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खिड़कियों के कांच को जो धो रही थी 
है वही बारिश.. जो बिन मौसम 
मेरे संग रो रही थी …

थम गई थी सांस पौधों की 
छतें भींगी पड़ी थी 
उड़ गया था प्यार का पंछी 

पंख खोले आसमानी रास्तों पर 
घोंसलों में कांपती सी सिसकियाँ थी 

बेसहारा से लगे सब ….

पर पता है जिंदगी की धार पर 
तुमने सिखाया पैर रखना 
घोल कर के आसुओं के संग 
पिलाया मुस्कराना 

हम बड़े अब हों गए हैं 

हों नही तो क्या तुम्हारी बात है अब 
नींद में जागे हुए सब याद है बस 

डगमगाते से ये देखो चल रहे हैं 

साथ हों ना?हाँ ना ?बोलो 

मैं अंधेरों से जरा सा डर रही हूँ ….

थाम लो ना ……..

 
 
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बात है बस 

साथ का एहसास है बस 
बेमानी सी सहनुभूतियाँ भी 

सुदूर फोन से 
सुनाई देती है 
कुछ अपनों की चुप्पियाँ

कुछ दोस्त सहला जाते हैं 

उदास पड़ी सलवटें 

दिन रोज दस्तक दे 
जाता है बंद दरवाजों पर 

शाम पिछली खिडकी से 
करती है तांक झांक 

आकाश भी वही है 
कुछ फीका सा रंग लिए 
या भरी आँखे है मेरी …..शायद…..

कामवाली दूधवाले का हिसाब 
करना है 
रसोई में खाली डिब्बे 
भरने है 
गैस का भी सुना 
कुछ महंगा हों गया है 

तो चलो मन की आग पर 
जिंदगी का पेट भरने को 
कुछ पकाएं 

अब भूख को क्यों रुलाएं ……….

 
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जबसे उदास हूँ वो साथ है 

अचानक आये बाढ़ से दुःख में 
बह गई सबसे अडिग दिवार की 
मिट्टी साथ है 
बाकि है हथेलियों में 
वही पुरानी सोधी महक 

वो मेरे घुटनों के पास बैठा 
मेरी अँगुलियों में गिनतियों के 

समिकरण बनाता 
मेरी कांपती देह को 
संभालता 
कुछ नही कह पा रहा है 

यूँ भी और दिनों में 
वो कम ही बोल पाता 
पर मैं सुन लेती हूँ उसे 

कल अचानक मेरी आँखें 
चूमता बोल पड़ा ……

एक बात सुन ….कई दिन से 
सुबह नही हों रही …
सूरज भी अलसाया सा है …
पता है …मंदिर की घंटियों 
से बेसुरी आवाजे सुनाई देती है 

सच कह रहा हूँ 
वो देख सामने का आकाश 
फीका नीला है ना ??

और ये देख ..तेरी बिस्तर पर 
डूबने वाला चाँद तुझे ही देख रहा है …

अब बस भी कर …मुसकरा दे …

पता है मुझे …अब रो पड़ेगा वो 
मैं उसकी आँखों में गहरे 
मुस्करा पड़ती हूँ… ये कहती 

चल जा काम कर ….
मैं ठीक हूँ ….कहा ना …..

 
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उजाले का एक दिया 
जलाना चाहती हूँ 

तेरा ख्याल भी 
बुझा बुझा सा है ….

मन मुसकराहट की पटरी पे 
चलता चलता 
उदासी के पत्थरों से 
टकरा जा रहा 
बार बार ……

 
 
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अबकी बनारस के घाट
मनभावन ना थे 

ना गंगा आरती में 
वो मंत्रमुग्ध करने वाला जादू 

सीढियों पर बैठे 
सभी भिखारी गुमसुम से थे 

शीतला मंदिर के फूल वाले ने 

नही थमाया हमारे खाली हाथों में 
चढावे का सामान 

मटमैली गंगा में बहते दिए 
अपनी दिशाओं से भटके 
लडखडाते चल रहे थे 

उस पार रामनगर की रेत 
पर हमारा बचपन 
अनंत में खो रहा था 

दिशाओं में अजीब तपिस है 

मल्लाहों ने बिना रिकझिक के 
बैठा ली है सवारी 

अस्सी से मणिकर्णिका के 
सफर पर निकल गई है नावं 

बेआवाज है घाट की चहल पहल 

विदेशी पर्यटक उतारते रहे 
अबतक की सबसे बेरंग शाम की तस्वीरे 

बनारस के सारे रंग अम्मा ले गई ……

अम्मा जीती रहीं बनारस 
अब सुलग् रहा है बनारस उनके साथ साथ ….

 
 
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राजघाट के पुल से गुजर रही 
मेरी ट्रेन 

सेकेंड क्लास का डिब्बा 
याद आया 

….ये है राजघाट का पुल 
बच्चे जा रहे स्कूल …..

भाई बहनों के साथ आती आवाजें …..

भूख तो ऐसी की हर दस मिनट पर लगती थी 
बेंत की डोलची अम्मा के सामने ही 
धरी रहती 
बारी बारी से पूरी भुजिया अचार देती 

एक चम्पक एक नंदन का सही 
बटवारा करते हम आपस में जूझते रहते 
खिडकी वाली सीट पर अम्मा हमेशा 
अपने थर्मस से पीती रहती चाय 

गर्मी की छुट्टियों में अक्सर हम 
अम्मा के साथ पिताजी के पास जाते 

पर इस बार अम्मा ने ये अलग ही यात्रा 
की अकेले जाने वाली तैयारी कर ली 

पर पता है जब आप अपनी इस यात्रा में 
राजघाट के पुल से गुजरेंगी ना …..

धडधडाती आवाज के साथ 
हम सब गंगा मैया को प्रणाम करते हुए 

गायेंगे वही गाना 

ये है राजघाट का पुल… इसपर बैठा है बुलबुल 
बच्चे जा रहे स्कूल ……..

आप जरुर सुनियेगा …

सुनेंगी ना हमारी आवाजें ……..

 
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चलो कहीं दूर चलते हैं 
चलोगे साथ ? 

हाँ बोलो कहाँ ?

वहां जहाँ फूल मुरझाते ना हों 
ना बदलती हों हवा 
कभी गर्म कभी सर्द 
जहाँ रुका हों समय 
जहाँ बदलते ना हों 

रिश्तों के रंग 
पहाड पर जमीं घास भूरी ना हों 

वहाँ जहाँ आहटों से घबरा 
ना जाते हों परिंदे 
मिलने की गुनगुनाहट के साथ 
गाये ना जाते हों विरह के गीत 

शाम पर अँधेरा छा रहा है 
वो मेरे हाथों पर 
थपकियाँ दे 
जगा रहा है मुझे 

देखो सारे पत्ते झर गए 
फिर नए आयेंगे 
कल सुबह ले चलूँगा तुम्हें 
दूर नदी किनारे 
आती है बस्ती से 
मछुवारों के गाने की आवाजें 

जिन्दगी संगीत है …

अभी घर चलते हैं …….

 
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अभी अभी देखा 
मेरे दुपट्टे के कोने में 
बंधी है एक गाँठ 

स्मृतियों के पन्ने खुलने लगे 
एक एक कर 

समंदर किनारे बनाया था 
एक तिनकों का घर 
हमने साथ साथ 

बड़ी कोशिश से 
बालू की दीवारें बनाई थी 

तुम मेरे दोनों हाथो को दबा देते बालू के ढेर में 
ये कह कर की घर बनाने का काम 
मेरा है ….
तुम्हें जब कहूँ तब आना ..

मैं तुनक कर मुँह फेर लेती 
पर सच… मन ही मन खुश होती थी 

पता नही कब बाँध दिया तुमने 
मेरे दुप्पटे से अपने रुमाल का कोना 
और बुलाया मुझे अपनी ओर

ये लो तुम्हारा घर ..पसंद आया ?
चलो इसके फेरे लेते हैं 

घर के फेरे ??? हाँ लेते है प्यार करने वाले 
तुम जो कहते मैं मान लेती ..मान लिया ये भी 

समंदर उफन रहा था ..लहरें 
किनारों के हौसलों को पस्त करने की 
पूरी तैयारी में चल पड़ी थी 

हमारी आँखों के सामने 
हमारे सपनों का घर लहरों की बली चढ़े 
हमे मंजूर ना था 
हम जल्दी से निकल आये वहां से 

मासूम प्यार की कश्ती में 
आज भी सवार है हमारी आवाजें 
समय की रेत पर अडिग है 
तिनकों का घर 

मैं तुमसे बहुत प्यार करती थी 
आगे भी करुँगी… बाँधली मैंने अपने दुपट्टे में 
एक और गाँठ… तुम्हारा रुमाल तुम्हारे पास हैं ना ?

तुम भी बाँध लो …प्यार में ऐसा करते हैं …..

 
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मैं नही समझ पाई 
पत्तियों का कम होता 
हरा रंग 
संकेत था 

बिछड जाने का 

तमाम दिनों से बुझी बुझी सी थी वो …..

 
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