1
रामनगर की रामलीला में
हर शाम रंगें जा रहें है
राम के चेहरे
मुल्तानी मिट्टी के
लेप से
जरा लीपी पुती जिंदगी
भी है इन दिनों
चिरई गांव का बंसी
ढांप के धर दिया है
अब एक महीने राम बनना है
मंडली वाले सारा दिन करवाते हैं
कुछ ना कुछ काम
पर ..सियाबर रामचंद्र की जय
सुनते ही बंसी भूल जाता है
अपनी जिंदगी की सारी उलझने
अपने कंधे पर धनुष रखते
फडकने लगती है उसकी भुजाएं
वो चलाना चाहता है एक जादुई तीर
जिससे बदल जाये देश दुनिया
दुःख तकलीफें ..
राम राज खाली किताब में है
कभी किसी ने नही देखी
अब तो देखना भी ना चाहें ऐसा राज
जीतनी ईमानदारीसे बने हम राम
उतनी ईमानदारी से प्रभू बंसी बन के देखो
सब्जी के ठेले को दिन दुपहरिया
गली गली ठेलते गुहार लगाते
सूख जाता है कंठ.. सूख जाती हैं
हरी सब्जियां
मुरझाया मुहँ लिए लौटते है घर
साथ लाए चंद सिक्कों से बची
रहती हैं सांसें
जाने दो तुम नही समझोगे ….
आज रात बनवास के बाद दशरथ
की रुदन वाली लीला है
सभी कलाकार अभ्यस्त है
ऐसी लीला के …….अभ्यास की
कौनो जरुरत नही …
अब हों गए ये नाख़ून से
नुकीले
नींद जख्मी है
बिस्तर की बेचैन
रातें जागती हैं
खारी नदी में
डूब गई आँखें
बित गई रात …….
तुम्हारी जरुरत बन गई
अब यू की
अपनी जरुरत भर
पहचानते हों तुम ……
जैसे पहली बार सुनो
तो स्मृतियों में समाई
सारी मुस्कराहटें
जल भून जाये
हलकी बयार सी छू जाती
है तेरी हंसी
और जब हंसती है
दिखता है तेरा मन
तू हंसती रह …की जीता रहूँ मैं …….
साथ के खत्म होने की बेचैनी
फिर मिले ना मिले
आँखों से छलकते सवाल
जबाब में बस कोरी मुस्कराहट
और स्पर्श की नरमी
तुम दे जाते हों मुझे हर बार
और उस बहाने को अपने सिने से लगा
मैं करती हूं एक और बार
तुमसे मिलने का खूबसूरत इंतजार ……..
वो आग जिसपर
सेंकती हूं
मैं दिन की रोटी
आंसुओ से खारी
पड़ती है रोटी
और आग नही जलती
उतनी देर जितनी
उसे जलनी चाहिए
आटे पानी आंसू
और आग के खेल
में ..मैं जलती भी हू
सिकती भी हूं
पर नही बुझने देती
भूख
यही तो है
जो बनाती है
हमे जीवन को लेकर
कुछ और जिम्मेवार ….
कहा तुम वैसी हों गई
जब मैंने बादल कहा तुम छा गई
मेरे तनमन पर
जब कहा कविता हों तुम
तुम वो मिसरी सी मिठास
रख जाती होठों पे
सरसराती सी मुझे सहला जाती
कितने रंग थे तुम्हारे प्यार में
एक दिन मैंने तुम्हें औरत कहा
तुम घर की सारी जिम्मेवारियां
अपने कमर में खोंस
खो गई ..और तमाम
लोगों की भीड़ का
हिस्सा हों गई ………
बैठ कर
नए जोड़ों ने
पुराने चाँद को देख
कुछ पुँराने वादे
दुहराए
नई तारीख में
लिखी गई
एक था राजा एक थी रानी …….
जल रहा धू धू कर
अट्टालिकाओं में बैठा
सुदर्शन रावण करता रहेगा
अट्टहास
हर साल होती है रामलीला
महीने भर तक
अपनी लंका में दशानन
उसके कारिंदे बचाए रखते है
उसका राज पाठ
रामलीला मैदान के मेले में
माइक पर आवाजे कांपती हुई सी
आ रही हैं
असत्य पर सत्य की विजय
हमारे कानों में भी पड़ती है ये आवाज
आज के दिन के लिए…. कहते हैं
यही है वो आखिरी भाषाई तीर
जो कभी नही लगता निशाने पर
आधे में बुझ गए रावण को बच्चे
फिर से जला रहे हैं
चंदे में मिले पैसों से राम लखन सीता
अपना घर चला रहे हैं ……
क्या करें क्या न करें की सोच लेकर
शाम बैठी थी हमारे साथ
कल कुछ देर को
चाँद भी पत्तों में छिपकर
पास सा था
बह रही नदियों की ठहरी धार
याद की पुरवाइयों ने छू लिया था
दूर जल कर खाक सा सब हो गया था
सब दिशाएं भोज में आई थी उस दिन
तुम नही थी …………..
मेरे साये
मेरी करवट में मेरे साथ
सोते हैं
उचक कर मैं हवा में
बह रही यादें
पकडती हूँ
झटक कर टांग आती हूँ
हथेली में तुम्हारे नाम को
इतरा के लिखती हूँ
किसी को हक़ नही की छीन ने
मुझसे मेरे सपनें
समय को साथ रखती हूँ
सभी रंगों में अपने ख्वाब के
मैं रंग मिलाती हूँ
मैं अपनी रात को अपनी ही
शर्तों पर जगाती हूँ
पर आँखों में भरे बादल पे
मेरा वश नही चलता
मेरी खुशियों की चुगली में
बिना मौसम बरसते हैं ….
मैं रुक गई
जल्दी चलो
मैं दौड़ पड़ी
किसी से कुछ मत कहना
चुप रही
अब रोने मत लगना
देर से आऊंगा
मैंने दरवाजे पर रात काट दी
खाने में क्या ?
मैंने सारे स्वाद परोस दिए
तुम्हारे झल्लाने से सहम
जाते हैं मेरे बच्चे
मैं तुम्हें नाराज होने का
कोई मौका नही देती
और तुम मुझे जीने का ……..
शून्य में डूबे पिता
नही पहुँच पा रहे
गंगा के निकट
आज करनी है
अम्मा की आखिरी विदाई
बरसी …..
ऐसे कैसे विदा कर दें तुम्हें
कोठरियों में
लगी हैं तुम्हारे हाथ की बनी
वो मजबूत सांकल
जहाँ तुम डटी रहीं
सुख दुःख को आने जाने का
रास्ता दिखाती
अम्मा ……आज हवा बड़ी तेज है
जैसे उड़ा ले जाएगी सब जो संजोया है अब तक
बचाने के उपक्रम में हम
बिखर रहें हैं
पंडितों के मंत्रोच्चार से
नतमस्तक है बनारस
हज़ार हज़ार दिया टिमटिमा रहा है
सबमें मुस्करा रही हो तुम
पिताजी ने पहनी है
सफ़ेद धोती
और हम सबने …सफ़ेद उदासी ……..
सुखाने डाल देता है
भेज देता है
लहर से शोख बच्चों को
चादरे बेहाल
किनारों पे पड़ी हैं ……